का हे हरेली तिहार के वैज्ञानिक पक्ष.. इही ह हमर बर संकट मोचक हरे माने ल परही
पोखन लाल जायसवाल, पठारीडीह (पलारी), जिला बलौदाबाजार-भाटापारा
भारत भुइँया देव भूमि आय, तपोभूमि ए, सँस्कार के भुइँया ए। बीर मन के अँंगना ए। ए हर राम-कृष्ण, गौतम, गाँधी, नानक, जइसन कतको के करम स्थली ए। ए पुण्य भूमि म आने-आने भाषा बोली के मनखे, अलग-अलग पंथ के अनुयायी, तरा-तरा के जाति-धरम अउ रीत-रिवाज के मनइया मन आपस म जुरमिल के मया-परेम ले रहिथें। अनेकता म एकता ह इहाँ के चिन्हारी ए।
ए पावन भुइँया के माटी के महमहासी कोनो चंदन ले कमती नइ हे। पूरा बछर भर तीज-तिहार होत रहिथें। तेकरे सेती तिहार के भुइँया घला कहाथे। एक तिहार मनिस कि दूसर के अगोरा अउ जोखा शुरु हो जथे। खुशी कभू कमतियाय नइ पाय। कृषि प्रधान देश होय ले इहाँ के जादा ले जादा तिहार ह किसानी काम के ऊपर निर्भर करथे। कोनो फसल बोय के पहिली, कोनो बीच के काम पूरा होय के खुशी त कोनो फसल काटे के तियारी अउ लछमी के घर आय के खुशी म मनाय जाथे।
भारत भुइँया के किसानी मानसून अवई के संग धान बोवई ले शुरु होथे। आसाढ़-सावन म भरपूर पानी गिरे ले धरती दाई ह हरियर लुगरा पहिरे सबके मन ल हरिया देथे। नरवा-नदिया कल-कल, छल-छल बोहाय लगथे। तरिया-डबरी लबालब भर जथे। जिहाँ पानी उहाँ जिनगानी, कस सबके मन आनंद ले, उछाह ले नाचे-कूदे लागथे। इही बेरा म सावन अमावस्या के हरेली तिहार मनाय जाथे। ए तिहार प्रकृति के संग मिल के धरती दाई के खुशी म खुशहाली मनाय के तिहार हरे।
प्रकृति के संतुलन के बिगड़े के पहिली समे म बरोबर पानी गिरे ले सावन अमावस के आवत ले रोपा-बियासी के बुता पूरा हो जावत रहिस। आज किसानी कोनो-कोनो मेर पूरा नइ हो पावय। इही हरेली के दिन किसान मन नागर, कुदारी, रापा जइसन किसानी म उपयोगी सबो अउजार ल धो के ओकर उपकार मानत, अभार प्रकट करत पूजा-पाठ करके बने सुक्खा जगा म रखथें। हीरा-मोती के संग गाय-गरुवा के घला हियाव करथें।
कृषि अउजार के भोग बर चीला चढ़ाथे। बइला अउ गाय मन ला लोंदी खवाथें। लोंदी म दशमूल काँदा, नून अउ पिसान ल परसा /खम्हार पान संग खवाय के चलन तइहा ले आत हे। राउत भाई मन दशमूल काँदा के जोखा करथे। एला मनखे मन घलो खाथें। एखर वैज्ञानिक पहलू ए समझ आथे कि बरसात म तरा-तरा के रोग-राई होय के डर रहिथे, संक्रमण फइले के खतरा बाढ़ ज रहिथे। एकरे ले बचाव बर एखर उपयोग हमर पुरखा मन अपन ढंग ले करत रहिन होही। काबर कि तब सबो कोति आज कस डॉक्टर अउ दवई के बेवस्था नइ रहिस। दूराँचल अउ दुर्गम इलाका म तो ए सुविधा तो रहिबेच नइ करत रहिस, आजो इही च हाल हे। अस्पताल तो खुलगे हे फेर डॉक्टर मन उहाँ रहिथें कतेक दिन…ट्राँसफर करवा लेथें।
इही च हरेली के दिन गेंड़ी चढ़े के रिवाज हे। आज के दिन बने गेंड़ी पोरा तिहार के आवत ले उपयोग करे जाथे, बउरथे। गेंड़ी बाँस ले बनाय जाथे। जेमा दूनो गोड़ बर बाँस के दू ठन कुटका/टुकड़ा, अउ दूनो म पाँव रखे बर पउवा बनाके अपन मनमर्जी ऊँच्च बाँधे जाथे।कोनो-कोनो के मानना हे कि एखर शुरुआत द्वापर युग म पाँडव मन करिन हे। मँय अपन बचपन ल सुरता करत सोंचथँव कि आज ले तीस-चालीस बछर पहिली हर गाँव के गली मन के कँकरीटीकरण नइ होय रहिस। त गली-गली बहुतेच चिखला होवय। त बबा पुरखा मन के समे का हाल रहिस होही, सोच सकथँन।
ओ समे बरसात म चले खातिर गेंड़ी के प्रयोग करिन होहीं। अउ चिखला-माटी ले, केंदवा अउ तरा-तरा के संक्रमण ले बाँचे ए ल बरसात के कमतियावत ले बउरत रहिन होही अइसे सोंचथँव। आजो बहुत अकन गाँव हो सकत हे जिहाँ गेंड़ी सउँक अउ रिवाज बर नहीं, जरूरत बर बनात होही। आज काल गेंड़ी-दौड़ के भी आयोजन करे जाथे। अब तो सरकार के पहल ले गेंड़ी दउड़ के प्रतियोगिता होवत हे, जउन बने बात आय।
छत्तीसगढ़ी समाज के पउनी-पसारी मन ए दिन अपन-अपन कोति ले मालिक अउ मालिक के परिवार बर मंगल कामना करत कुछु कुछु नेंग करथें। जइसे राउत भाई मन लीम डारा घर के मुहाटी दरवाजा म खोंचथें, लीम के औषधि गुन ले सबो परिचित हँन। लुहार ह खीला के पाती दाबथें। मोला सुरता आत हे, मोर डोकरी दाई पानी गिरय अउ बादर गरजय त हँसिया-कुदारी मन ल अँंगना म फेंके ल काहय अउ बताय कि गाज उही म गिरही, हमर कोति नइ आही। हो सकत हे लुहार के सींग दरवाजा म खीला ठोंके के कारण इही हो, कि कोनो किसम के अलहन दुआरी च ल पार झन कर सकय। सबो पउनी-पसारी ल दान पुन म चाँउर दार नून दे जाथे। ए तिहार म समाजिक जुड़ाव हे, समरसता हे त एक दूसर बर कल्याण अउ सुख समात के भाव घलव हे।
इही दिन के रतिहा ल लेके कतको आनी-बानी के गोठ होथे। जादू-टोना अउ ताँत्रिक साधना के सिद्धि बर साधना इही दिन शुरुआत करथे, के गोठ घला होथे। एला अइसन ढंग ले भी सोचे बर चाही कि कोनो भी काम ल करे बर कसम खा के शुरुआत करे जाय त अपन सबो काम बुता पूरा होही। कोनो अड़चन नइ आही। गाँव के बइगा (पुजारी) गाँव भर के सबो देवी देवता ल सुमर गाँव के पूजा पाठ कर गाँव के सुख, शाँति, उन्नति अउ सपन्नता के कामना अउ प्रार्थना करथे। बदला म वहू ल चाँउर दार दे जाथे।
इही ढंग ले छत्तीसगढ़ी समाज आपस म जुर मिल एक दूसर के चिंता अउ सेवा म लगे रहिथे। आज प्रकृति ले मनखे के खिलवाड़ अतका बाढ़गे हवय कि पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ गे हे। जेन साफ-साफ दिखथे। एके समे म कोनो कोति भयंकर गरमी त कोनो अउ कोति नदिया म भारी पूरा (बाढ़) देखे मिलथे। प्रकृति अपन बिफरे के इशारा कोनो न कोनो रूप म देत हवै फेर वाह रे मनखे विकास के घोड़ा म चढ़े, अनदेखा करत कति भागत जात हे। अभी समे हे धरती ल सँवारे के, नवा सिरा ले सजाय के। धरती के हरियाली बाँचही त मनखे के अस्तित्व रही। इही हरियाली हमर बर संकट मोचक हरे माने ल परही। तभे हरेली तिहार अपन सही समे म सही ढंग ले नवा पीढ़ी मनाही, ए हमर नवा पीढ़ी बर पुरखा मन के हमर थाती आय मानन, जउन ल हम अपन जिम्मेदारी समझ के उन ल सउँपन। तभे तो तिहार माने के सार्थकता रही।