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फिल्म गाइड के मार्को की आत्मकथा, ओल्ड बॉलीवुड में छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र की गौरव गाथा

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February 24, 2018 14 Mins Read
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दिलीप साहू, जय जोहार

जय जोहार. बहुत ही कम लोगों को मालूम होगा कि छत्तीसगढ़ के किशोर साहू उस जमाने में बॉलीवुड का स्टार रहे हैं, जब देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार साहब हिन्दी सिनेमा में पदार्पण कर रहें थे। किशोर साहू ने 1948 में दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को फिल्म नदिया के पार में ब्रेक दिया था। किशोर साहू हिन्दी सिनेमा के महान शख्सियत अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, साहित्यकार व चित्रकार थे। 22 अक्टूबर 1915 को दुर्ग में जन्मे किशोर साहू की स्कूली शिक्षा स्टेट हाईस्कूल राजनांदगांव और मनरो हाईस्कूल भंडारा से हुई। आगे की पढ़ाई मॉरिस कॉलेज नागपुर में हुई।

आजादी के बाद जिन फिल्मकारों ने भारतीय सिनेमा को मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक बदलाव के जरिए के रूप में स्वीकार किया, उनमें एक शख्स थे किशोर साहू। श्री साहू ने स्कूल के जमाने से ही नाटकों का साथ पकड़ लिया। नाटकों की दुनिया में प्रवेश लेने के बाद उन्हें लगता था कि वे अभिनय करने के लिए ही पैदा हुए थे। नागपुर के मॉरिस कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद श्री साहू नाटकों को इतनी गंभीरता से लेने लगे कि पढ़ाकू छात्रों में शुमार किए जाने वाले वे बाद में परीक्षा में पास होने लायक नंबर ही ला पाते थे। कॉलेज के दिनों में ही किशोर साहू ने लिखना शुरू कर दिया। बाद में उनके लेखन की प्रतिभा ने उन्हें फिल्मी दुनिया में अपनी जगह मजबूत करने में बहुत मदद की।

Biography of Kishore Sahu
Biography of Kishore Sahu

कॉलेज से निकलने के बाद उन्होंने नाटक करने का ही फैसला किया। इस बीच सुंदर और प्रतिभाशाली श्री साहू को उनके दोस्तों ने राय दी कि वो मुंबई जाकर फिल्मों में भाग्य आजमाएं। बोलती फिल्मों की शुरुआत कुछ साल पहले ही शुरू हुई थी। इस नए माध्यम के प्रभाव और शक्ति का अंदाज श्री साहू को हो चुका था। इसलिए दोस्तों की राय पर उन्होंने मुंबई की रूख किया। दूसरे बहुत से लोगों की तरह साहू को भी काम ढूंढने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा। इसी दौर में उनकी मुलाकात अशोक कुमार से हुई। साहित्य में रूचि और अभिनय की बारीकियों पर श्री साहू की बेबाक बातों ने अशोक कुमार को काफी प्रभावित किया। अशोक कुमार की सिफारिश पर बाम्बे टॉकिज के मालिक हिमांशु राय, श्री साहू से मिलने पर राजी हो गए। और इस मुलाकात के बाद साहू की किस्मत बदल गई। हिमांशु राय ने साहू को अपनी फिल्म जीवन प्रभात (1938) में हीरो का रोल दे दिया। किशोर साहू की नायिका थी हिमांशु राय की पत्नी देविका रानी। किशोर साहू की पहली ही फिल्म हिट हो गई। सिनेमा में किस्मत आजमाने आए किसी इंसान के लिए इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती थी। इस फिल्म में किशोर साहू ने एक रईस जमींदार के बेटे का रोल निभाया था। उन्होंने हिरोइन के साथ बाग में गाने गाए और शिकार के दृश्य में मचान पर चढ़कर शेर भी मारा। लेकिन ये सारे काम तो वो कोई भी हीरो कर सकता था, जिसे इस फिल्म में काम करने का मौका मिलता। किशोर साहू को इस फिल्म की सफलता ने कहीं से भी उत्तेजित या उत्साहित नहीं किया, क्योंकि वे अलग मिट्‌टी बने थे। उन्हें लग रहा था कि नाटकों में काम करने के बाद उन्हें जिस तरह की संतुष्ति मिलती थी वैसा कुछ फिल्म की सफलता के बाद नहीं हुआ। वो कुछ ऐसा करना चाहते थे, जिससे उनके अंदर के कलाकार को संतुष्टि मिल सके।

लेकिन किसी कलाकार की संतुष्टि के लिए कोई फायनेंसर अपना पैसा क्यों खर्च करेगा? इस बात का अहसास किशोर साहू को फिल्म हिट होने के बाद जल्द ही हो गया। उनके सामने एक ही रास्ता था कि अपनी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए वे खुद ही फिल्म बनाएं। मगर उनके हालात ऐसे नहीं थे। अपने समय की चर्चित पत्रिका “गंगा“ में किशोर साहू पर छपे संस्करण में धमेंद्र गौड़ बताते है कि भले ही श्री साहू की पहली फिल्म सुपरहिट रही हो, लेकिन इसके लिए पारिश्रमिक के तौर पर उन्हें कुछ नहीं मिला। हिमांशु राय की संस्था बाम्बे टॉकीज, जिसने फिल्म बनाई, से किशोर का मन खट्टा हो गया। अपने साथ हुए इस व्यवहार को उन्होंने अपमान के रूप में लिया। क्षुब्ध साहू वापस नागपुर लौट गए, लेकिन खाली हाथ नहीं। उनके साथ था अभिनय, लेखन और निर्देशन के अनुभव का पूरा जखीरा। वापस लौटकर श्री साहू नाटकों और लेखन में जुटे ही थे कि उनके मुंबई के अनुभवों की खबर पा कर उनके दोस्त द्वारिका दास डागा उनसे मिलने आ पहुंचे। वो लखपति व्यावसायी थे। मुंबई में उनके भाई का अपना व्यवसाय था। साहू ने डागा को बताया कि अपनी मर्जी की फिल्म में काम किए बिना उन्हें संतुष्टि नहीं मिल सकती और ऐसा करने के लिए उन्हें अपनी फिल्म कंपनी खोलनी होगी, जिसकी हैसियत उनमें नहीं है। श्री डागा फिल्म जीवन प्रभात देख चुके थे और किशोर साहू की प्रतिभा का पहले से ही अंदाज था। इसलिए वे श्री साहू के साथ मिलकर फिल्म कंपनी खोलने के लिए राजी हो गए। इस तरह अस्तित्व में आई इंडिया आर्टिस्ट लिमिटेड नाम की फिल्म निर्माण संस्था। इस बैनर की पहली फिल्म थी बहुरानी।

Biography of Kishore Sahu
Biography of Kishore Sahu

अनूपलाल मंडल के उपन्यास मीमांसा पर आधारित फिल्म (बहुरानी 1940) अछूत विषय पर अपने समय की बेहद चर्चित और क्रांतिकारी फिल्म साबित हुई। श्री साहू इसमें नायक थे। बहुरानी का नायक एक अछूत कन्या से प्यार करने लगता है। और उसे पत्नी बनाकर घर लाना चाहता है, लेकिन उसके पिता इसका जोरदार विरोध करते हैं। पिता और पुत्र के द्वंद्व के जरिए किशोर साहू ने उस विषय को बेहद मार्मिकता और प्रभावशाली ढंग से पर्दे पर पेश किया। श्री साहू ने खुद को अभिनय क्षेत्र में सीमित रखा और निर्देशन की जिम्मेदारी सौंपी आरएस जुनारकर और मुबारक को। बहुरानी व्यावसायिक रूप से काफी सफल साबित हुई।

उस समय तक ज्यादातर अभिनेता-अभिनेत्रियां अपने गाने खुद गाते थे। बहुरानी के संगीतकार रफीक गजनवी ने किशोर साहू को इस फिल्म में गाने के लिए प्रेरित किया। साहू ने अनुराधा के साथ मिलकर गीत गया, जिसके बोल थे-आना जाना खेल खिलाने, जी को रिझााने आना जी…। इसी फिल्म में श्री साहू ने एक गीत मिस रोज के साथ भी गाया- वो किरणें चितवन चुरा चुरा, पत्तों में मुखड़ा छिपा-छिपा…। उसी साल आई फिल्म (पुनर्मिलन 1940) में संगीतकार रामचंद्र पाल ने किशोर साहू की आवाज का प्रयोग किया। स्नेहप्रभा के साथ किशोर साहू ने इस फिल्म के लिए गीत गाया- आओ बनाएं घरवा प्यार, प्यारा प्यारा जग से न्यारा…। किशोर साहू की आवाज को पसंद किया गया। इसका अहसास खुद किशोर साहू को भी हुआ, तभी तो उन्होंने फिल्म राजा में पहला एकल गाना गया, जिसके बोल थे- आंखों की ये शराब पिए झूम कर निकले…। इसी फिल्म में उन्होंने प्रतिमा दास के साथ भी दो गाने गाए। लेकिन आगे चलकर उन्हें ये अहसास हो गया कि अभिनय और निर्देशन के साथ साथ वो गायन के साथ इंसाफ नहीं कर सकते, इसलिए उन्होंने गीत गाना छोड़ दिए।

Biography of Kishore Sahu
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किशोर साहू अपनी ही शर्तों पर काम कर फिल्म में जगत में स्थापित हो चुके थे। उनकी अभिनीत बाम्बे टॉकीज की फिल्म *पुनर्मिलन* भी सफल रही। साथ ही इस फिल्म की वजह से किशोर साहू की जिन्दगी में एक सुंदर अभिनेत्री का भी प्रवेश हुआ। *पुनर्मिलन* की नायिका स्नेहप्रभा प्रधान और किशोर साहू के बीच इसी फिल्म के दौरान प्रेम पनपा और कुछ समय पर दोनों ने शादी कर ली। शायद यह दोनों का दुर्भाग्य था कि उनका विवाह अधिक देर तक नहीं टिक सका और साल भर बाद ही दोनों में संबंध विच्छेद हो गए।

पुनर्मिलन के हिट होने के साथ ही साहू के खाते में लगातार तीसरी सफल फिल्म आई। इसके बाद किशोर साहू के सामने अभिनय की एक और चुनौती आई। उस समय तक हास्य कलाकार ही पर्दे पर कॉमेडी करते नजर आते थे। नायक गंभीर किस्म का ही हुआ करता था। ऐसे में किसी हीरो में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो कॉमेडियन बन जाए। खासकर किशोर साहू जिनकी लगातार तीन फिल्में हिट हो चुकी थीं। लेकिन किशोर साहू ने पूरी हिम्मत के साथ खतरा उठाया। इस बार किशोर साहू ने अपनी फिल्म कंपनी आचार्य आर्ट प्रोडक्शन स्थापित की और इसके बैनर तले बनी (कुंवारा बाप) नाम की वह फिल्म भारत की बेहतरीन हास्य फिल्मों में शुमार की जाती है। फिल्म के मुख्य पात्र किशोर साहू भाग्य और घटनाओं के चक्कर में फंसकर जो करते हैं, उससे जबरदस्त हास्य पैदा होता है। दरअसल एक कुंवारे युवक की परिस्थितियां किसी दूसरे के बच्चे का बाप बना देती है। युवक की एक प्रेमिका भी है, जो बहुत मुश्किल से स्वीकार पाती है कि उसका प्रेमी कुंवारा होने के बावजूद एक बच्चे का बाप कहलाने पर मजबूर हो गया है। सुप्रसिद्ध लेखक अमृतलाल नागर इसी फिल्म के जरिए श्री साहू से जुड़े। उन्होंने (कुंवारा बाप) के डायलाग लिखे और अभिनय भी किया। फिल्म की जबरदस्त सफलता ने ना सिर्फ किशोर साहू का उत्साह बढ़ाया बल्कि अभिनय के अलग-अलग रंगों को आजमाने के लिए प्रेरित भी किया।

इसलिए जब किशोर साहू के हास्य अभिनेता के चर्चे हो रहे थे, तब श्री साहू ने एंग्री मैन का रोल निभाने का फैसला किया। फिल्म का नाम था *राजा*। फिल्म में दिखाया गया है कि एक आदर्शवादी युवक को उसकी प्रेमिका धोखा दे देती है। इस बात से नाराज होकर वह युवक पूरी औरतजात से नफरत करने लगता है और अपना गम भुलाने के लिए खुद को शराब के नशे में डूबो देता है। अपना घर छोड़कर एक खोली में रहने वाले युवक को वहीं लिखने की प्रेरणा मिलती है और व शानदार लेखक बन जाता है। झुग्गी बस्ती वाले उसे राजा के नाम से बुलाते हैं। फिर झुग्गी बस्ती में रहने वाली एक महिला के साथ बिना शादी किए रहने लगता है। पूरी फिल्म में किशोर साहू यानी राजा ने अपनी भाव भंगिमाओं और खामोशी के जरिए अपनी अंदर की तड़प और बेचैनी को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया। इस रोल को साहू अपने अभिनय जीवन की श्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक मानते थे। इसी फिल्म में हिन्दी के एक और साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा श्री साहू से जुड़े। उनका एक गीत – है आज यहां कल वहां चलो..राजा का प्रमुख गीत था।

*राजा* सफल रही तो किशोर साहू ने ध्यान दिया कि अभी तक उन्होंने वेशभूषाा आधारित किसी फिल्म में काम नहीं किया है, जबकि उस समय बनने वाली फिल्मों में अधिकतर ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों पर वेशभूषा आधारित फिल्में हुआ करती थीं। श्री साहू ने ऐतिहासिक विषय चुना और सम्राट अशोक के पुत्र कुणाल के जीवन पर आधारित *वीर कुणाल* नाम से फिल्म बना डाली। इस विषय पर साहू पहले से ही उपन्यास लिख रहे थे, जो प्रकाशित होने के बाद काफी चर्चित रहा। 1945 में प्रदर्शित इस फिल्म को सरदार वल्लभ भाई पटेल ने रिलीज किया था। और उन्होंने श्री साहू के इस प्रयास की बेहद प्रशंसा की। अब साहू फिल्मी दुनिया में बेहद प्रतिष्ठित स्थान बना चुके थे। इस बीच श्री साहू ने दूसरे निर्माताओं की फिल्मों में भी काम किया। लेकिन वहां उन्होंने महज पैसे के लिए काम किया, क्योंकि उन्हें खूब एहसास था कि वहां अभिनय की संतुष्टि नहीं मिल पाएगी।

दिलीप कुमार को फिल्म में ब्रेक

1948 में किशोर साहू ने अपने फिल्मी जीवन के एक और महत्वपूर्ण पड़ाव को छुआ। इस साल उनकी निर्देशित फिल्म *नदिया के पार* ने हिन्दी फिल्मों में क्षेत्रीय भाषा के महत्व को स्थापित किया। इसमें उन्होंने दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को ब्रेक दिया। इस फिल्म में किशोर साहू ने भी अभिनय किया। फिल्म के डॉयलाग उन्होंने खुद लिखे, जिसमें छत्तीसगढ़ी बोली का भरपूर प्रयोग किया। जबकि गीतकार मोती बीए ने गीतों में भोजपुरी का बहुत शानदार इस्तेमाल किया। *नदिया के पाार* गांव में रहने वाल एक प्रेमी जोड़े की कहानी है। फिल्म के अंत में नायक को मरते हुए दिखाया गया है, जबकि उस दौर में ही नहीं आगे भी हिन्दी फिल्मों में नायक को मरते हुए दिखाने का जोखिम बहुत कम निर्देशक ही ले पाये। लेकिन साहू के फिल्म का अनोखा अंत करने के फैसले ने फिल्म की सफलता में बड़ा योगदान दिया।

हिन्दी सिनेमा का पहला भोजपुरी गीत

मोती बीए के लिखे गीतों में रफी द्वारा गाया गीत- मोर राजा हो ले चल नदिया के पार… हिन्दी सिनेमा का पहला भोजपुरी गीत कहा जाता है। नदिया के पार के बाद किशोर साहू की निर्देशित और अभिनीत एक और फिल्म *सावन आया रे* ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। इसके बाद कुछ और फिल्में देने के बाद किशोर साहू के मन में एक पुराने सपने ने अंगड़ाई ली।

शेक्सपीयर के नाटकों के दीवाने

श्री साहू कॉलेज के दिनों में शेक्सपीयर के नाटकों के दीवाने थे। मुंबई आने के बाद से ही वे शेक्सपीयर के नाटक पर फिल्म बनाने का सपना देखा करते थे और जब फिल्मों में उनका पैर मजबूती से जम गए, तो उन्हें अपना सपना पूरा करने को आधार मिल गया। शेक्सपीयर की नाटक *हेमलेट* को लेकर उन्होंने *हेमलेट* नाम से फिल्म बनाने की ठान ली। इस संबंध में श्री साहू लंदन गए और शेक्सपीयर के नाटकों में प्रयोग की जाने वाली वेशभूषा, पोशाकों और दूसरे सामान की तलाश में यहां-वहां भटकते रहे, क्योंकि साहू इस फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की फिल्म बनाने की कोशिश कर रहे थे। इस फिल्म की परिकल्पना के साथ ही उन्होंने तय कर लिया था कि फिल्म की हिरोइन नरगिस के अलावा और कोई नहीं हो सकती। लेकिन नरगिस ने साहू के सामने शर्त रख दी कि अगर राजकपूर को हीरो बनाया जाए तो वे फिल्म में काम कर सकती है। उस समय साहू की ख्याति राजकपूर से कहीं ज्यादा थी। उन्होंने नरगिस की शर्त नहीं मानी। अब श्री साहू हिरोइन की तलाश में भटकने लगे। तभी उनके मित्र और अभिनेता जानकीदास ने उनकी मुलाकात मासूम हुस्न की मलिका माला सिन्हा से कराई। माला सिन्हा को देखते ही साहू की तलाश खत्म हो गई। *हेमलेट* बनी और और अपने समय के मुंबई के सबसे प्रतिष्ठित सिनेमाहाल मेट्रो में रिलीज हुई।

हेमलेट से आर्थिक संकट

फिल्म के प्रीमियर शो के लिए किशोर साहू की पत्नी प्रीति साहू की बनाई गई विशाल पेंटिंग्स से हॉल को सजाया गया। इत्तेफाक से उन दिनों में शेक्सपीयर के नाटकों में अभिनय के लिए मशहूर अदाकारा डेम सिबिल और उनके पति सर लुइस कारसन भी मुंबई आए हुए थे। उन्हें साहू ने इस शो में आमंत्रित किया। लेकिन भव्य स्तर पर बना किशोर साहू का सपना फ्लाप साबित हुआ और किशोर साहू का सबकुछ डूब गया। कुछ ही महीनों में  चेंबूर स्थित उनका भव्य बंगला *वाटिका* वीरान हो गया। बंगले की हरियाली सूख गई। गेट पर हर वक्त मुस्तैद नजर आने वाले दरबानों को छुट्टी दे दी गई। यहां तक कि साहू ने अपने प्रिय दो अल्सेशियन कुत्तों को भी दूसरे के हवाले कर दिया।

प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष 

धन से अधिक अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए किशोर साहू को कड़ा संघर्ष करना पड़ा। *हेमलेट* के बाद किशोर साहू ने *बड़े सरकार*(1957) और *किस्मत का खेल*(1956) का निर्देशन जरूर किया, लेकिन इससे साहू को पुरानी प्रतिष्ठा हासिल नहीं हो पाई। निराश और परेशान श्री साहू लगातार ऐसी फिल्मों के बारे में सोच रहे थे, जो हिट हो जाए। एक दिन दोस्त जानकीदास ने एक पुरानी कहानी की याद दिलाई, जिसे सुनने के बाद *दिल अपना और प्रीत पराई* फिल्म बनाने का विचार आया। किशोर साहू को विश्वास था कि इस फिल्म की नायिका के लिए मीना कुमारी से बेहतर और दूसरा नहीं हो सकता। कमाल अमरोही ने इस प्रस्ताव के बारे में सुना तो उन्होंने साहू से कहानी खरीदने की पेशकश की ताकि वे खुद इस पर फिल्म बना सकें। लेकिन मीना कुमारी श्री साहू के निर्देशन में काम करना चाहती थी। इस मामले में जानकी दास ने श्री साहू की बहुत मदद की और कमाल अमरोही को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वे श्री साहू के निर्देशन में फिल्म बनने दें।

दिल अपना और… से लौटी प्रतिष्ठा

जब ये फिल्म *दिल अपना और प्रीत पराई*(1960) रिलीज हुई तो धमाका सा हो गया। मीनाकुमारी, राजकुमार और नादिरा अभिनीत इस फिल्म का संगीत शंकर जयकिशन का था। इस फिल्म के गाने आजतक लोकप्रिय हैं। फिल्म सफल रही। किशोर साहू का आत्मविश्वास और प्रतिष्ठा वापस लाने में इस फिल्म का अहम रोल रहा। इसी साल उनकी एक और उल्लेखनीय फिल्म *काला बाजार* आई, लेकिन वो फिल्म आज भी देवानंद की वजह से याद की जाती है।

ग्लैमर नहीं सामाजिक विषय को महत्व

किशोर साहू को फिल्म बनाने के लिए सामाजिक विषय और प्रणय संबंधों की कहानियां हमेशा उत्साहित करती थीं, लेकिन वे राजकपूर की तरह ग्लैमर के प्रदर्शन पर विश्वास नहीं करते थे। इसी वजह से किशोर साहू ने आगे भी फिल्में बनाई, लेकिन शायद वे बदलते समय से तालमेल नहीं बिठा सकीं। लगभग गुमनाम से होते जा रहे किशोर साहू को फिल्म *गाइड*(1965) ने थोड़ा सहारा दिया। इसमें उन्होंने नायिका की उदासीन और अडिय़ल पति की भूमिका निभाई।

बेटी नैना साहू को ब्रेक

फिर से स्थापित होने की कोशिश में उन्होंने अपनी बेटी को लेकर *हरे कांच की चूडिय़ा*(1967)बनाई। फिल्म की चर्चा हुई। खासकर शंकर जयकिशन के संगीतबद्ध गीतों की, लेकिन किशोर साहू के सिर पर मंडरा रहे आर्थिक चिंता के बादल मंडराते ही रहे। उन्होंने अगली फिल्म फिर नैना साहू को लेकर बनाई *पुष्पांजलि*(1970) में संजय खान के साथ श्री साहू ने भी इस फिल्म में काम किया, लेकिन फिल्म फ्लाप साबित हुई। अगले साल वे *गैम्बलर* और *हरे रामा हरे कृष्णा* में एक अभिनेता के रूप में नजर आए, लेकिन फिल्मकार के रूप में वे समय की रफ्तार से पिछड़ते चले गए। परवीन बॉबी को लेकर बनाई उनकी फिल्म *धुएं की लकीर*(1974) भी बुरी तरह फ्लाप साबित हुई।

अभिनेत्रियों को अभिनय प्रशिक्षण

किशोर साहू का मानना था कि हिन्दी फिल्मों में अभिनेत्रियों का इस्तेमाल केवल ग्लैमर के लिए होता है, उनसे अभिनय करवाया ही नहीं जाता। उन्होंने अपने निर्देशन में बनी हर फिल्म में नवोदित अभिनेत्रियों को बकायदा अभिनय का प्रशिक्षण दिया। *हेमलेट* में माला सिन्हा, *कालीघटा* में बीना राय और आशा माथुर, *हरे कांच की चूडिय़ां* में अपनी बेटी नैना साहू और धुंए की लकीर में परवीन बॉबी को श्री साहू ने एक शिक्षक की तरह अभिनय की बारीकियां सिखाई।

किशोर साहू बेहद घरेलू इंसान

फिल्मी दुनिया में बरसों गुजारने के बाद भी किशोर साहू बेहद घरेलू इंसान थे। उन्हें अपने दोस्तों और परिवार के सदस्यों पर बहुत भरोसा था। अपने दो बेटों और दो बेटियों से वे अपनी फिल्म की पटकथाओं पर विस्तार से बातचीत करते थे।

साहित्यकार के रूप में आदर

श्री साहू की हिन्दी के प्रति गहरी दिलचस्पी की वजह से उन्हें आचार्य कहा जाने लगा था। अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, मोती बीए और महेश कौल जैसे हिन्दी के साहित्यकारों से उनके रिश्ते बहुत ही मधुर रहें। लेखकों-साहित्यकारों की जमात में किशोर साहू को एक साहित्यकार के रूप में आदर मिलता था।

बतौर साहित्यकार किशोर कुमार

किशोर साहू फिल्म लेखन के साथ-साथ साहित्यिक लेखन भी करते रहे। *टेसू के फूल*, *घोंसला* और *छलावा* नाम से उनके कहानी संग्रह को हिंद पॉकेट बुक ने छापा। कुछ मोती कुछ सीप और वीर कुणाल सहित उन्होंने चार उपन्यास लिखें। अभिसार उनका गीत संकलन है। शादियां, ढकोसला के नाम से उनके तीन नाटक भी प्रकाशित हुए।

1980 में सिनेमा के एक युग का अंत

22 अगस्त 1980 को जब वे अपनी छोटी बेटी ममता से मिलने कैलीफोर्निया जा रहे थे तब हांगकांग एयरपोर्ट पर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया। इस तरह हिन्दी सिनेमा के एक युग अंत हो गया।

किशोर साहू की आत्मकथा जल्द

किशोर साहू अपनी आत्मकथा 1 जून 1974 को लिख चुके थे और उसे छापने को लेकर उनकी राजेंद्र यादव से चर्चा भी हुई, लेकिन वह किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सकी। करीब 42 साल बाद किशोर साहू के आत्मकथा का प्रकाशन अब छत्तीसगढ़ सरकार की सहयोग से किया जा रहा है। किशोर साहू की स्मारिका के संपादक व जन्म शताब्दी समारोह समिति के सदस्य साहित्यकार रमेश अनुपम के मुताबिक किशोर साहू की करीब 400 पेज की आत्मकथा जल्द ही प्रकाशित होने जा रही है। यह मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह के विशेष प्रयास से संभव हो पा रहा है।

बतौर निर्देशक किशोर साहू की फिल्में

बहुरानी(1940), कुंआरा बाप(1942), राजा(1943), वीर कुणाल(1945), सिंदुर(1947), साजन(1947), नदिया के पार(1948), सावन आया रे(1949), मयूर पंख(1954), हेमलेट(1954), किस्मत का खेल(1956), बड़े सरकार(1957), दिल अपना प्रीत पराई(1960), गृहस्थी(1963), घर बसा के देखो(1963), पूनम की रात(1965), हरे कांच की चूडिय़ा(1967), पुष्पांजलि(1967), धुएं की लकीर(1974) और अपनापन(1980) शामिल हैं।

बतौर अभिनेता किशोर साहू की फिल्में

जीवन प्रभात(1937), बहुरानी, पुनर्मिलन(1940), कुंआरा बाप, राजा, वीर कुणाल, सिंदुर, नदिया के पार, सावन आया रे, कालीघटा,(1951) बुजदिल(1952), हमारी दुनिया(1952), जलजला(1952), सपना(1952), मयूरपंख, हेमलेट, किस्मत का खेल, बड़े सरकार, काला बाजार(1960), गाइड(1965), पूनम की रात, पुष्पांजलि, गैम्बलर(1971), हरे रामा हरे कृष्णा(1971) और अपनापन शामिल है।

किशोर साहू को पुरस्कार एवं सम्मान

  1. सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का प्रथम भारतीय आस्कर अवार्ड फिल्म *सिंदुर* के लिए।
  2. सीआईएमपीए की तरफ से *सिंदुर* को बेस्ट सिने पर्सनॉलिटी अवार्ड।
  3. सर्वश्रेष्ठ निर्दशन का पुरस्कार फिल्म *सावन आया रे*।
  4. *राजा* को बेस्ट स्टोरी एवं बेस्ट स्क्रीन प्ले अवार्ड।
  5. *राजा* को सर्वश्रेष्ठ कथा एवं निर्देशन हेतु बांग्ला फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन अवार्ड।
  6. *वीर कुणाल* को बांग्ला फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा स्वर्ण पदक पुरस्कार।
  7. *वीर कुणाल* को सर्वश्रेष्ठ फिल्म अवार्ड।

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